Thursday, May 26, 2011

मदन कश्यप : ऐसा बहुत कम होता है मेरे साथ


धर्म और सांप्रदायिकता के बीच नए रामचंद्र की कथा

मदन कश्यप
चर्चित कवि, पत्रकार और संस्कृतिकर्मी

उपन्यास को खत्म करने के बाद मुंह से बस एक शब्द निकला-अद्भुत! ऐसा बहुत कम होता है मेरे साथ। वैसे भी मैं कथा साहित्य का अच्छा पाठक नहीं हूं। मेरे अध्ययन औररुचि के क्षेत्र दूसरे हैं कविता, विचार, इतिहास और समाज विज्ञान के अलावा थोड़ा-बहुत राजनीति। मैं कथा में भी इन्हीं चीजों को ढूंढ़ता हूं और अक्सर निराशा हाथ लगती है। इस दृष्टि से हिंदी की तुलना में कुछ अन्य भारतीय भाषाओं के उपन्यास मुझे ज्यादा आश्वस्त करते हैं। फिर भी 'उत्तर वनवास' पढ़ा क्योंकि एक गोष्ठी में इस पर कुछ बोलना था और उसके लिए पढऩा जरूरी था। शुरुआत एक आशंका के साथ की इसलिए कि अरुण आदित्य को मैं अब तक केवल एक कवि के रूप में ही जानता था। कविता के अलावा उनकी कुछ समीक्षाएं भी पढ़ रखीं थी और उनकी समझ और विश्लेषण का कायल था। वे पेशे से पत्रकार हैं तो इस नाते सामाजिक मुद्दों पर लिखीं उनकी कुछ टिप्पणियां भी पढ़ी थीं। लेकिन यह उपन्यास है और इसके पहले अरुण की कहानी भी नहीं पढ़ी थी कि उसके आधार पर कोई धारणा बनाता। जहां तक मुझे मालूम है उन्होंने अब तक कोई कहानी लिखी भी नहीं है। सृजनात्मक गद्य की यह पहली किताब है उनकी। फिर भी एक बार जब शुरू कर दिया तो अंत करके ही छोड़ा। ऐसा कथारस है जो नई पीढ़ी के कथाकारों में दुर्लभ है। यह सिफ काशीनाथ सिंह में मिलता है और उसका विस्तार स्वयं प्रकाश, संजीव, उदय प्रकाश और अखिलेश जैसे कथाकारों में दिखाई देता है। नई पीढ़ी का कथा लेखन एक अंधी-सुरंग में फंसा हुआ दिखाई दे रहा है।
दरअसल नए लेखकों के पास विचार तो हैं, मगर प्रतिबद्घता की कमी के कारण दृष्टि बहुत साफ नहीं है। कुछ नए अनुभव हैं लेकिन व्यापक जीवन अनुभव और इतिहास के प्रवाह के बीच उन्हें व्यवस्थित करने की कुशलता अभी नहीं आई है। इतिहास दृष्टि ,विश्वदृष्टि, और वर्ग चेतना के स्तर पर भी कुछ धुंध है। ऐसे में वे कथ्य को अधिक-से-अधिक काव्यात्मक बनाने की कोशिश करते हैं, जिससे कथारस का लोप हो जाता है और कहानी (उपन्यास भी) प्राय: अपठनीय हो जाती है। ऐसे कठिन दौर में इधर अनामिका के उपन्यास दस द्वारे का पींजरा और अरुण आदित्य के 'उत्तर वनवास' को पढ़कर ऐसा लगा कि सुरंग तो है, मगर अंधी सुरंग नहीं। उससे पार निकलना केवल संभव है बल्कि उसके पार उजास की एक दुनिया भी है जिसकी झलक दिख रही है। ऐसी कुछ कहानियाँ भी हैं, लेकिन कहानियों और कहानीकारों की चर्चा अभी उचित नहीं है।
मैं इस लंबी वक्तव्युनमा टिप्पणी के लिए माफी चाहता हूं मगर इसके बगैऱ 'उत्तर वनवास' पर कुछ लिखना मेरे लिए संभव नहीं था।... यह कवि पत्रकार-कवि अरुण आदित्य की पहली कथा कृति है, मगर इसमें वह कच्चापन नहीं है जो प्राय: किसी पहली कृति में होता है। नयापन जरूर है। कविता की भाषा आलोचना की विश्लेषण क्षमता और पत्रकारिता के समय-समाज को देखने के नजरिए का जैसा संतुलित और सृजनात्मक उपयोग कथाकार ने किया है, वह दुर्लभ है। उपन्यास की कथावस्तु अत्यंत परिचित और इसीलिए सामान्य है। मध्य उत्तर प्रदेश का एक गांव जहां जाने के लिए नदी पर पुल तक नहीं था। आज़ादी के बाद भी सामंती व्यवस्था कायम थी और शक्तिशाली ब्राह्मणों और राजपूतों के दो पाटों के बीच गाँव के पिछड़े-दलित पिस रहे थे। ऊंची जातियों के गरीबों की भी अपनी व्यथा-कथा थी। ज़ुल्मियों की संख्या कम ही थी, मगर जुल्म का फैलाव बहुत ही व्यापक और गहरा था। इसी बीच, गाँव-गाँव में रामजन्मभूमि विवाद के माध्यम से सांप्रदायिकता का प्रवेश होता है। फिर बाबरी मस्जिद के विध्वंश के बाद सांप्रदायिकता का जो सैलाब आता है उसमें नए मानवीय मूल्य ही नहीं, धार्मिक और नैतिक मूल्य भी डूब जाते हैं। उपन्यास का अंत नंदीग्राम जाने की ओर इशारा करते हुए होता है।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि बाबरी मस्जिद विध्वंश से लेकर नंदीग्राम मार्च तक के लंबे कालखंड की राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल को १६० पृष्ठों में समेटने का उपक्रम किया गया है। ऐसे में इस कृति के एक पत्रकारीय रपट बन जाने का ख़तरा था। जैसा कि पत्रकारों के कथा-लेखन केसाथ अक्सर होता भी है। मगर अरुण ने कथानायक रामचंद्र के चरित्र को कुछ इस रूप में विकसित किया है कि उसके पलुहने केसाथ-साथ कथावस्तु का भी अपरिचयकरण होता चलता है और यह चिरपरिचित कथा एक महत्वपूर्ण कृति बन जाती है। रामचंद्र का चरित्र निरूपण अद्भुत है। कभी-कभी वह मेटाफर या रूपक लगता है, कथा में ऐसे संकेत मिलते हैं, मगर उसका चरित्र इतना जीवंत, रोचक और ग्रामीण जीवन की विसंगतियों और जटिलताओं से इस तरह आबद्घ है कि रूपक से ज्यादा उसका वजूद प्रभावित करने लगता है।
सवर्णों के सबसे गरीब परिवार में पैदा हुआ रामचंद्र सबसे पहले तो इस बात के लिए पिट जाता है कि पाँचवी की परीक्षा में वह अव्वल आता है और गाँव के जमींदार का,जो लोकतंत्र का मुखिया है,बेटा कुँवर साहब दूसरे स्थान पर खिसक जाता है। यहीं से रामचंद्र का नैतिक और सामाजिक संघर्ष शुरू होता। अंतत: कुंवर के कारण ही उसे गाँव छोडऩा पड़ता है। शहर में वह एक मठ में शरण लेता है, वहाँ अपने रामायण ज्ञान और कथावाचन की प्रभावी शैली केचलते केवल गुरू जी का प्रिय शिष्य बन जाता है, बल्कि सत्ता की ओर अग्रसर सांप्रदायिक दल में भी शामिल हो जाता है। वह प्रखर प्रवक्ता है और बड़ी संख्या में लोगों को आकर्षित कर लेता है जिसके चलते उसे पार्टी का काफी ऊँचा पद मिल जाता है। रामचंद्र रामायणी के रूप में उसकी कीर्ति फैल जाती है।
लेकिन रामचंद्र रामायणी जब नैतिक और धार्मिक आधार पर सांप्रदायिकता की राजनीति का विरोध करते हैं तो पार्टी में उन्हें अपमानित होना पड़ता है। उन्हें दुख इस बात से होता है कि गुरू जी उनका बचाव नहीं करते। इस तरह,उपन्यासकार ने धर्म के सामाजिक उपयोग और राजनीतिक इस्तेमाल के बीच की टकराहट को अच्छी तरह रखा है और सांप्रदायिकता की राजनीति की पोल खोली है।
इस उपन्यास की विशेषता यह है कि इसमें कथानक रामचंद्र रामायणी के चरित्र के विकास को सरल रेखीय ढ़ंग से नहीं प्रस्तुत किया गया है बल्कि छोटी-छोटी रोचक घटनाओं के माध्यम से उसे निरूपित किया गया है। ये घटनाएँ अपनी रोचकता के कारण नहीं, उस जीवन दृष्टि के कारण प्रभावित करतीं है जिसे वे निर्मित कर रही होती हैं। रामचरित मानस की चौपाइयों का ऐसा सृजनात्मक प्रयोग ता हिंदी की किसी आधुनिक कथाकृति में देखने को नहीं मिला। मार्मिकता, क्रूरता और विसंगति को उभारने के लिए इनकी प्रासंगिकता नए सिरे से रेखांकित होती है। रामचंद्र के जीवन में एक छोटा-सा प्रसंग प्रेम का भी आया था जब प्रयाग में कथा बाँचते हुए उनकी नजर एक युवती से मिली थी। वहाँ वाटिका प्रसंग लाकर लेखक ने उसे एक गहराई दी है। लेकिन नयनों से नयनों का वह संभाषण आगे नहीं बढ़ पाया और रामचंद्र के कलेजे में एक हूक बन कर अटक गया।
रामचंद्र के मित्र थे वामपंथी कवि सत्यबोध। तीखी वैचारिक बहसों के बावजूद दोनों एक दूसरे की ईमानदारी और निष्ठा का आदर करते थे। आखिऱी बार सबकुछ का त्याग करके रामचंद्र जब अपने गुरूदेव का आश्रम छोड़ कर निकलते हैं तो उन्हें सत्यबोध मिल जाते हैं और वे स्वप्न की तलाश में सत्यबोध के पीछे चल पड़ते हैं। यह सच्चाई नहीं, बल्कि लेखक का सपना है मगर कथा के अंत में इतने विश्वसनीय ढंग से आया है कि कहीं से भी रूमानी अंत जैसा नहीं लगता। सपने में सच जैसी विश्वसनीयता पैदा करना कला की सबसे बड़ी सफलता होती है,जो बहुत कम कृतियों को मिल पाती है।
अरूण आदित्य के पास बहुत ही ताक़तवर भाषा है। वे एक नई तरह की कथा भाषा अर्जित करते हैं, जिसमें मानस की चौपाइयों के साथ-साथ अन्य कविताओं का भी सटीक प्रयोग है,लेकिन वह इस हद तक काव्यात्मक नहीं है जो कथाप्रवाह में व्यवधान पैदा करे। पूर्ववर्ती कवि-कथाकारों की तरह वे भी बड़ी सजगता से अपनी कथाभाषा को काव्य भाषा से अलग करते हैं और उसकी शर्तों पर ही कलात्मक उत्कर्ष देने का प्रयत्न करते हैं। इसके चलते उन्हें केवल इस उपन्यास में ही सफलता नहीं मिली है, बल्कि इसके माध्यम से उन्होंने एक नई उम्मीद भी जगाई है। आवरणिका पर वरिष्ठ कथाकार संजीव ने ठीक लिखा है कि नई पीढ़ी के सामने उपन्यास लेखन को लेकर जो ढेर सारी चुनौतियाँ थीं,उनका जबाव लेकर आया है अरूण आदित्य का यह उपन्यास।
(साहित्यिक पत्रिका बया के जनवरी-मार्च 2011 अंक में प्रकाशित)
........................

उपन्यास : उत्तर वनवास
प्रकाशक : आधार प्रकाशन, एससीएफ- 267
सेक्टर-16, पंचकूला-134113 (हरियाणा)
मोबाईल - 09417267004
मूल्य : 200 रुपए